‘बागि-उप्पनै लड़ै’ गढवाली साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैयालाल डंडरियाल जी द्वारा रचित खण्डकाव्य है। कन्हैयालाल डंडरियाल एक ऐसे विरले कवि थे जो आज के वैज्ञानिक युग में भी नंगे पैर चलकर धरती के दर्द को आत्मसात् करते हुये आगे बढ़ते थे। इसीलिए उनके साहित्य मे अपनी माटी की सौंधी खुशबू होना स्वाभाविक है।
बहराल, ‘बागि-उप्पनै लड़ै‘ याने भैंसे और पिस्सू की लड़ाई, में बागी (भैंसा) विकास का प्रतीक है तो उप्पन (पिस्सू) दरिद्रता याने गरीबी का। विकास और दरिद्रता के बीच के संघर्ष का सजीव वर्णन है – ‘बागि-उप्पनै लड़ै’ खण्डकाव्य। विकास याने भैंसे का साथ मेहनती और ईमानदार जीव जैसे गाय, बैल, सदियों से शोषित व दलित भेड़-बकरी आदि दे रहे हैं तो दरिद्रता याने पिस्सू की ओर से दुष्ट व बेमान – दूसरे का खून चूसने वाले सूदखोर खटमल, मच्छर आदि मैदान में हैं। आज के परिपेक्ष्य मे कहें तो ये क्रुर सत्ता और अराजक व्यवस्था के साथ जूझते आम आदमी का संघर्ष है, जो आम आदमी को भी अराजक बनने पर मजबूर करता है।
काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से, मातृभाषा की मिठास के साथ साथ लोक जीवन से लिए गये बिम्ब व प्रतीक लोकभाषा प्रेमियों को एक अलग आनन्द की अनुभूति करवाते हैं। इसमें काव्य के नौ के नौ रसों का आनंद मिलता है। मात्रिक छन्द से मुक्त होने के बावजूद भी तुकान्त पंक्तियां हैं और लय, यति, गति के साथ अविधा, लक्षणा और व्यंजना – तीनों शब्द शक्तियों का प्रसंगानुसार सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है। अलंकारों का भी समुचित उपयोग किया गया है।
‘बागि-उप्पनै लड़ै’ के विषय में यह बात भी विशेष है कि कई गढ़वाली भाषा प्रेमी ऐसे भी हैं जिन्होंने डंडरियाल जी की हस्तलिखित पुस्तक को फोटोकॉपी करवा कर अपने पास रखा हुआ है। किसी पुस्तक के प्रकाशित होने से पूर्व ही इतना लोकप्रिय होना अभूतपूर्व है।
Bagi ar Upnai Laden
- Post author:khuded
- Post published:May 31, 2021
- Post category:Book Review
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